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धूप और बादल / दीपा मिश्रा

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तुम मुझे बादल का एक कतरा भेजो
मैं तुम्हारे लिए तपती सुनहरी धूप भेजूंगी
बरसा लूंगी बादल को मैं अपने ऊपर
सेंक लेना धूप से तुम भी अपने जख्मों को
कुछ मेरी तपिश कम होगी
कुछ सुलगोगे तुम भी
मजा आएगा जब एहसास एक से होंगे
मौसम भी लगेंगे खुद को कोसने
धूप बारिश सब घुल मिल जाएंगे
क्यों ना ऐसा भी कुछ करें हम तुम
बादलों के संग अपने कुछ गम भी
पोटली में बाँधकर दे देना
किरणों के साथ कुछ हंँसी के सिक्के
मैं भी रख दूंगी
तुम्हारे भेजे गम को सुंदर से तकिए में भर
सिरहाने में मैं रख लूंगी
मेरी हंसी के सिक्कों को तुम
संभाल कर गुल्लक में भर लेना
नींद आएगी तुम्हें सुकून की
ले लूंगी जो तुम्हारा गम
चैन हमको भी मिलेगा
जब होठों पर हंँसी तुम्हारी आएगी
तुम मुझे बादल का एक कतरा भेजो
मैं तुम्हारे लिए तपती सुनहरी धूप भेजूंगी