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ध्‍वस्‍त पोत / हरिवंशराय बच्चन

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बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण चीत्कार ,हाय पुकार,
कर्कश-क्रुद्ध-स्वर आरोप
बूढ़े नाविकों पर,
श्वेतकेशी कर्णधारों पर,
कि अपनी अबलता से,ग़लतियों से,
या कि गुप्त स्वार्थप्रेरित,
तीर्थयात्रा पर चला यह पोत
लाकर के उन्हें इस विकट चट्टान से
टकरा दिया है .
यान अब है खंड-खंड विभक्त,करवट,
सूत्र सब टूटे हुए,
हर जोड़ झूठा,चूल ढीली,
नभमुखी मस्तूल नतमुख,भूमि-लुंठित.
उलटकर सब ठाठ-काठ-कबार-सम्पद-भार
कुछ जलमग्न,कुछ जलतरित,कुछ तट पर
विश्रृंखल,विकृत,बिखरा,बिछा,पटका-सा,फिका-सा
मरे,घायल,चोट खाए,दबे-कुचले औए डूबों की न संख्या.
बचे,अस्त-व्यस्त,घबराए हुओं का.
दिक्-ध्वनित,क्रंदन !
इसी के बीच लोलुप स्वार्थ परता
दया,मरजादा,हया पर डाल परदा
धिक्,लगी है लूट नोच,खसोट में भी .

इस निरात्म प्रवृत्ति की करनी उपेक्षा ही उचित है.
पूर्णता किसमें निहित है ?
स्वल्प ये कृमि-कीट कितना काट खाएँगे-पचाएंगे !
कभी क्या छू सकेंगे,
आत्मवानो,वह अमर स्पंद कि जिससे
यह वृहद जलयान होकर पुनर्निर्मित,नव सुसज्जित
नव तरंगों पर नए विश्वास से गतिमान होगा .

किंतु पहले
बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण आह्वान,कर्कश-क्रुद्ध क्रंदन.
पूछता हूँ,
आदिहीन अतीत के ओ यात्रियों,
क्या आज पहली बार ऐसी ध्वंसकारी,
मर्मभेदी,दुर्द्धरा घटना घटी है ?
वीथियाँ इतिहास की ऐसी कथाओं से पति हैं,
जो बताती हैं कि लहरों का निमंत्रण या चुनौती
तुम सदा स्वीकारते,ललकारते बढते रहे हो.
सिर्फ चट्टाने नहीं,
दिक्काल तुमसे टक्करें लेकर हटे हैं,
और कितनी बार वे जानें,बताएँ.
टूटकर फिर बने,
फिर-फिर डूब कर तुम तरे,
विष को घूँट कर अमरे रहे हो.