नगर भ्रमिये गुरु करै उपदेशवा, सेहो मन सुतल निचित।
उठू उठू आहो मन गुरु के भजन करु, करु सत्संग से प्रीति॥
सत्संगति बिनु भव नहिं तरिहो, कहत सकल श्रुति नीति।
काम क्रोध अरु लोभ अंहकार, तिनसे रहहु भय भीति॥
डरत जो रहहि गुरुपद गहहि, सेहो भव लेतहु जीति।
दृष्टिपथ शब्द पथ अंतर अंत धसु, तब मिलिहैं सत चीत॥
चोरी जारी नशा हिंसा मिथ्या से बचल रहु, तब होबहु निचित।
कहै अछि ‘किंकर’ सुन रे मनुवाँ, गावहु गुरु के गीत॥