नज़र से ओझल / अमरजीत कौंके

हर बार सफ़र में चाहता हूँ मैं
कि सहेज लूँ
सारे रास्ते को अपनी आँखों में
और मेरे दिल में फैल जाए
रास्ते का प्रत्येक वृक्ष, प्रत्येक झाड़ी
और मेरे खामोश तन्हा पलों में
मेरी स्मृति में महक जाएँ
ये दिल लुभावने मोड़
नहर के पुल
पुलों के नीचे बहता पानी
दूर खलिहानों में चरते मवेशी
उनके पीछे गीत गाते बेख़बर चरवाहे

लेकिन दूसरी बार जब
फिर निकलता हूँ
उसी सफ़र पर जब
तो हो जाता हूँ हैरान
कि ये मोड़, ये चौराहा तो
देखा ही नहीं था पहले
यह सूखा हुआ पेड़
वह ढह चुका मकान
पिछली बार देखा होगा भले ही
लेकिन फिसल गया है
स्मृति से

मैं फिर
ध्यान से देखता हूँ
फिर आँखों में संजोता हूँ
हर वृक्ष, हर पौधा
हर मोड़, हर रास्ता
लेकिन अगली बार निकलता हूँ
उसी सफ़र पर जब
तो फिर होता हूँ हैरान
कि छूट गया है बहुत कुछ इस बार भी
जो रह गया है देखने से

हर बार
हैरान होता हूँ मैं
और हर बार बहुत कुछ रह जाता है
नज़रों से ओझल।

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