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नदी आज कोरों से बहने लगी / शशि पाधा
Kavita Kosh से
संयम की मिट्टी ढहने लगी
नदी आज कोरों से बहने लगी|
किनारों का बंधन
टूटा कहीं
पलकों से नाता
रूठा कहीं
आँखें भी सीलन सहने लगीं|
इक फाँस पैनी
चुभती रही
दलीलों की बाती
बुझती रही
पोरों पे पीड़ा दहने लगी|
साँसों की सरगम
रुक सी गई
संवादों की पूँजी
चुक सी गई
चुप्पी ही हर बात कहने लगी|
काँधे हथेली
धरे तो कोई
मन के सकोरे
भरे तो कोई
उन्मन सी देहरी रहने लगी |
नदी आज कोरों से बहने लगी |