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नदी बनूँ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कभी-कभी होती है इच्छा,
नदी बनूँ मैं, बहती जाऊँ।
खड़े, किनारों के पेड़ों के,
गले लगूँ फिर हाथ मिलाऊँ।
कभी-कभी लगता है ऐसा,
मेंढक बन मैं भी टर्राऊँ।
धवल रेत में ठंडी-ठंडी,
रुकूँ और कुछ पल सुस्ताऊँ।
कभी रात में चंदा देखूँ,
अपने जल में उसे छुपाऊँ।
सब तारों को पकड़-पकड़ कर,
अपने ऊपर मैं तैराऊँ।
कभी-कभी लहरें बन उछलूँ,
और किनारों से टकराऊँ।
कभी सीढ़ियों पर बैठूँ मैं,
कभी उछलकर वापस आऊँ।
घाटी, पत्थर, चट्टानों को,
हर-हर के मैं गीत सुनाऊँ।
देख कछारों, तीरों को खुश,
मैं हंस लूँ हंस कर इतराऊँ।
बनूँ सहायक खेतों की मैं,
मैं फसलें भरपूर दिलाऊँ,
एक साथ बकरी शेरों को,
अपने तट का नीर पिलाऊँ।