नयी सियासत / शर्मिष्ठा पाण्डेय
कभी चेहरा,कभी आईना बदल लेते हैं
खुदी पसंद हैं खुदा भी बदल लेते हैं
है शौक किस कदर बदल-बदल के जीने का
हैं वो हाकिम,इन्तिजामात बदल लेते हैं
मालिक ए मुंसिफ,कानूनात बदल लेते हैं
नक्शा ए शहर नमूनात बदल लेते हैं
खुदसरी इस कदर रवां हैं,रग रग में
चमन के गुल ए तास्सुरात बदल लेते हैं
पारसा हैं, इल्जामात बदल लेते हैं
हल हो मुमकिन तो सवालात बदल लेते हैं
इतिहास ए हिंद,रटा जुबानी उनको
सवाल ए सख्त, जवाबात बदल लेते हैं
जिन्हें जर्रे से बिठाया गया फलक पे
बदगुमानी में आफताब बदल लेते हैं
अजब ये खेल सियासत का जरा देखिये तो
जम्हूरियत में तख्तो -ताज बदल लेते हैं
बंद कमरों में हिफाज़त की तलब है जिनको
सहूलियत में वो दिन रात बदल लेते हैं
इस तरह उलझ रहे हैं वो होशो दानिश में
हाँ! गद्दारों के मुश्किलात बदल लेते हैं
बदलने पे हैं आयें क्या क्या न बदल डालें
ऊँचे खानदान पे, माँ-बाप बदल लेते हैं