नवगीत की चलती-फिरती पाठशाला / अनामिका सिंह 'अना'
डॉ.अश्वघोष वह नाम है जिसे नवगीत की चलती-फिरती पाठशाला कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । 20 जुलाई 1941 को रन्हेरा, बुलंदशहर (उ.प्र.) में जन्मे डा आश्वघोष जी ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम्. ए. तथा पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की । डॉ. अश्वघोष ने हिंदी साहित्य की काव्य विधा के विभिन्न परिसरों पर कार्य किया है । जिनमें बाल-गीत, अतुकांत, गीत-नवगीत ,ग़ज़ल आदि काव्य रचनाएँ हैं ।
बाल काव्य संकलनों की बात करें तो आपके चार संकलन ‘डुमक-डुमक-डुम, तीन तिलंगे, राजा हाथी, बाइस्कोप निराला’ प्रकाशित हो चुके हैं । इनके कई काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं । जिनमें प्रमुख हैं - (१)तूफ़ान में जलयान,(२) आस्था और उपस्थिति, (३) अम्मा का ख़त, (४) हवाः एक आवारा लड़की (५)माँ, दहशत और घोड़े, (६) जेबों में डर, (७) सपाट धरती की फसलें, (८) गई सदी के स्पर्श में,(९) ज़िन्दगी के आशियाने,(१०)सीढ़ियों पर बैठा पहाड़ । इसी में एक काव्य-संग्रह ‘अम्मा का ख़त’ स्वामी रामतीर्थ मराठवाड़ा वि.वि., नांदेड में बी.ए. प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है ।
आपके द्वारा एक शोध ग्रन्थ – ‘ हिंदी कहानीः सामाजिक आधारभूमि ’ तथा दो खण्ड-काव्य – ' ज्योतिचक्र ' तथा ' पहला कौंतेय ' भी रचा गया है ।
उत्तर-साक्षरता साहित्य के अंतर्गत आपने धन्य-धन्य तुम नारी, अच्छा है एक दीप जलाएँ, स्वास्थ्य-रक्षा की कथा, धरती माँ का दुःख, किस्सा भोला का, हमारा पर्यावरण आदि रचनाएँ सृजित की हैं ।
उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, उ.प्र. प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, लखनऊ , संभावना संस्थान मथुरा द्वारा पुरस्कृत तथा 'समन्वय' संस्था , सहारनपुर एवं भारतीय बाल-कल्याण संस्थान कानपुर द्वारा भी सम्मानित डॉ. अश्वघोष द्वारा नवगीत पर उल्लेखनीय कार्य किया गया है ।
काव्य-जगत बिना गीत एवं नवगीत के अपूर्ण है । गीत के शैशव-काल में उसकी गेयता प्रमुख थी और इसका आधार लोक गीत थे । इसलिए विषय भी मिलन-विछोह , हर्ष विषाद ही प्रमुख रहे हैं । समय के साथ गीतों की लय तो बनी रही किन्तु अन्य बहुत बदलाव आये हैं । देश की सरकारों के कार्य में उत्पन्न विसंगतियों को पारम्परिक गीतों के माध्यम से प्रकट न कर पाना इसका प्रमुख कारण रहा है । रिश्तों में बढ़ती स्वार्थपरता, वैश्वीकरण के दुष्परिणाम और जीवन की कठिनाइयाँ शनै : शनै: गीतों के विषय बनने लगे ।
सन् १९५० के पश्चात गीतों में लोक तत्व के अलावा आधुनिकता की उपस्थिति भी दिखाई देने लगती है । इसी काल में प्रयोगवादी कविता परिमार्जित होती हुई नयी कविता में पर्यवसित हो जाती है । प्रयोगवादी रुझानों से गीत भी प्रभावित होता है । गीतों में यथार्थवादी तत्वों की उपस्थिति को सर्वप्रथम उस दौर के ख्यात गीतकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह चिन्हित करते हैं । उन्होंने जिन गीतकारों के गीतों की रचना प्रक्रिया में लोक एवं यथार्थवादी कथ्यों की पड़ताल की, उन सबका व्याकरणिक निरूपण किया तथा ऐसे नये गीतों को ‘नवगीत’ कहा । नवगीत की स्थापना हेतु उनका ‘गीतांगिनी’ नामक समवेत संकलन (1958)इतिहास प्रसिद्ध है ।
नवगीत की चेतना में इसके नवीन बिम्ब, भाषा, प्रतीक, संकेत आदि इसका आकर्षण बढ़ाते हैं । मेरी दृष्टि में कोई नवगीत अपनी सम्प्रेषणीयता एवं हृदयस्पर्शिता में विशिष्ट तब होता है, जब उसके कथ्य में नवीनता हो तथा उसकी रचना प्रक्रिया नई कहना भंगिमा युक्त हो । ख्यात नवगीतकार श्री वीरेंद्र आस्तिक जी के शब्दों में उपरोक्त तथ्य और स्पष्ट हो जाता है । वे कहते हैं – “ गीत-नवगीत केवल लय-प्रवाह से नहीं बनता । लय के साथ अर्थ-प्रवाह भी हो, गीत तब बनता है । दूसरी बात नवगीत की सम्प्रेषणीयता इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अर्थ-बोध कितना अप्रस्तुत है । उसमें से कितने भावार्थ और ध्वन्यार्थ निकलते हैं (न बहुरे लोक के दिन ‘नवगीत कृति की भूमिका से : 2021)” ।
कथ्य की कहन भंगिमा में नवीन प्रयोगों से नवगीत की नवता बनी रहती है । समकालीन परिस्थितियों की अनुभूतियों को टटके बिम्बों एवं प्रतीकों के माध्यम से सफलतापूर्वक संप्रेषित करने में सक्षम नवगीत में उसकी प्रभावशाली कहन किसी नवगीत को विशिष्ट बनाती है । भाषा के नये प्रयोग, नये बिम्ब और विचारों की सजगता ने इस विधा को सुगठित किया है । भाषा अपने विशिष्ट प्रयोग के तहत लोक जीवन के मुहावरों को जब नव छंदों में ढालकर सामाजिक परिस्थिति का सही बोध, वास्तविक जीवन संघर्ष की सही-सही व्याख्या को किसी नवगीत में व्याख्यायित करती है वही नवगीत का वैशिष्ट्य है ।
नवगीत के उपरोक्त बिन्दुओं के निकष पर डॉ. अश्वघोष के नवगीत दृष्टव्य हैं । उनके विपुल रचना संसार के परिसर में जीवनानुभूति के उजले एवं स्याह पक्ष के जीवंत परिदृश्य अपनी मौलिकता के साथ समावेशित हैं । भाषा की स्वाभाविक और सहज कहन ही उनके गीतों को पठनीय बनाती है -
कल करेंगे
जो भी करना
आज तो बस धूप से बातें करें ।
क्या कभी भी एक क्षण
अपनी खुशी से
भोग पाते हैं
रोटियों के व्याकरण में ही
समूचा दिन गँवाते हैं ।
तूफ़ान में जलयान, आस्था और उपस्थिति, अम्मा का ख़त, हवाः एक आवारा लड़की ,माँ, दहशत और घोड़े, जेबों में डर, सपाट धरती की फसलें, गई सदी के स्पर्श । ये नवगीत संकलन परिस्थितियों के परिवर्तन के लिए संघर्ष की ललक हैं ।
पल भर की निद्रा के भीतर
किन आँखों को लेकर झाँकें ।
पत्ती-पत्ती छिन जाएगी
रह जाएँगी नंगी शाखें ।
साक्षी हैं ये मौन दिगंबर
माली की करतूत के ।
डॉ. अश्वघोष साधारण की असाधारण अभिव्यक्ति में सिद्धहस्त रचनाकार हैं । वे सहज संप्रेषणीय बिम्ब चयन कर संवेदना की गहराई को और भी गहरा कर सहज रूप से प्रस्तुत करते हैं । कथ्य और शिल्प की दृष्टि से सुगढ़ नवगीतों में, मानव जीवन के साधारण प्रसंगों को भी बहुत महत्त्व देना दिखाई देता है -
हत्यारे दिन नए साल के
घूम रहे सीना निकाल के
मानवता के घोर विरोधी
करुणा दया क्षमा सब खो दी
हिंसा को रखते संभाल के
हत्यारे दिन नए साल के ।
आदरणीय वीरेन्द्र आस्तिक जी के सम्पादन में छपी पुस्तक ‘धार पर हम (दो)’ 2010 में डॉ. अश्वघोष के कई गीत स्थान पाए हैं - ‘बेड़ियाँ’, इस बरस, पूछा बरगद से, हवा : एक आवारा लड़की,जेबें पढ़ने लगीं..आदि । ‘पूछा बरगद से’ गीत में नवगीतकार गाँव के उजाड़ स्वरूप पर चिंतित तो है ही साथ ही वह इस परिस्थिति के लिए एक संकेत भी दे रहा है -
सुबह शाम जाती थी घर-घर
कहाँ गई चूल्हे की आग,
बोलो कैसे हुए कसैले
पनघट के मीठे संवाद ।
इस पद पर हम आए कैसे ,
गिरकर धुरपद से ?
डॉ. अश्वघोष के गीतों में जहाँ सादगी की संलग्नता है ,वहीं भावनाओं और संवेदना की गहनता की उपस्थिति शालीनता से दर्ज़ है । आपने अपने नवगीतों में मानव की पीड़ा और लोक परिदृश्य को बहुत आत्मीयता से महसूस कर उतारा है ।
खेतों के कंधे पर ठहरा
बरगद मेरे गाँव का,
इस बरगद को
धरती मैया,
बड़े जतन से पालती,
यह बरगद है
बहुत सबल अब
प्रकृति इसे सँभालती,
बड़े मज़े में बैठा-बैठा,
अपनी धुन में ऐंठा-ऐंठा,
रात दिवस देता है पहरा
‘बरगद मेरे गाँव का ।
दिसंबर-2017 में नचिकेता जी के सम्पादन में आये नवगीत संग्रह ‘ समकालीन गीतकोश ’ में डॉ. अश्वघोष का गीत ‘पैनी-सी इक कील’ में सर्वहारा के तल्ख जीवन के विद्रूप सच पर तीव्र प्रहार करते इस प्रभावशाली नवगीत में, मानव की पीड़ा को स्वर दिया है।
एक अज़ब से दुःख में सहसा
हुई ख़ुशी तब्दील ।
रोज़ चुभा करती सीने में
पैनी-सी इक कील ।
श्रम को ही भगवान मानकर रहे पूजते हम
बदले में बस ग़ुरबत पायी और सैकड़ों गम
सूखी रही सदा ही अपने
हृदय की यह झील ।
दृश्यों में अदृश्य रहे हम कोणों से कटते
रहे देखते पेटों को हम पीठों से सटते
उड़ती रही हमेशा सिर पर
गर्दिश की इक चील ।
डॉ. रणजीत पटेल द्वारा 2016 में सम्पादित ‘सहयात्री समय के ' में प्रकाशित इनके कुछ नवगीतों में एक ‘हामिद ढूँढ़ रहा है चिमटा ’ के शिल्प में बिम्ब के अतिरिक्त भी एक नवता दृष्टव्य है, गीत के प्रत्येक अंतरे का प्रारम्भ मुखड़े की पंक्ति से किया गया है ...यह मोहक वारंबारिता गीत के प्रवाह को रुचिकर बनाती है ।
हामिद ढूँढ़ रहा है चिमटा,
विश्वग्राम के बाज़ारों में ।
विश्वग्राम के बाज़ारों में
शोरूमों की संख्या भारी,
इनमें हैं आयातित सपने
नींद लपेटे हुए खुमारी,
सजे हुए हैं जगह-जगह पर,
झूठ, सचों के आकारों में ।
विश्वग्राम के बाज़ारों में
दर्शकगण की चहल-पहल है,
सबके मन में इच्छाओं का
इक सतरंगी ताज़महल है,
डूबी है हर एक भंगिमा,
धन-दौलत की झंकारों में ।
‘संघर्षों से नाता जोड़ो’...इस नवगीत के अंतिम स्थायी बंद को पढ़ने से प्रतीति होता है कि नवगीतकार कथ्य को दृढ़ रखने को अधिक तरजीह देते हैं, बनिस्बत छंद के । जबकि ऐसा करने से गेयता पर प्रभाव पड़ता ही है –
संभव है सन्नाटा घेरे,
चुप्पी में खो जाएँ सबेरे,
तब तुम अपने
अन्दर जाना
अन्दर कुछ मुखरित जंगल हैं ।
किसी के लिए भी घर के म'आनी क्या है ? ‘ गौरैया का घर खोया है’ ...नवगीत कवि की बेज़ुबानों और निरीह प्राणियों के प्रति सहृदयता का कागज़ पर उत्कीर्ण भावप्रवण दस्तावेज़ है ।
उन्होंने कोई कारण शायद ही छोड़ा हो घर के महत्त्व को दर्शाने का –
घर का मतलब छप्पर-छानी,
घर का मतलब है आराम,
घर का मतलब रोटी-पानी,
घर का मतलब सुबह-शाम,
देख-देख कर
इस धूएँ को,
आँखें रोयीं, दिल रोया है ।
जाति-धर्म में कट्टरपंथ पर कवि क़लम बेबाक़ है । आपने पूरी निर्भीकता से सच्चाई सामने रखी है , किसी को भी बख्शा नहीं है । इस निर्भीकता की सिर्फ़ कवि द्वारा ही नहीं वरन जन -जन अपेक्षा की जाती है ।
अलग-अलग बैठे हैं चारों
मंदिर –मस्ज़िद, चर्च-गुरुद्वारे,
अपनी-अपनी मछली फाँसे
जैसे मछुए नदी किनारे
एक-दूसरे से
नफ़रत है
सबके मन में छिपी घात है ।
डॉ. अश्वघोष के नवगीत आशा-निराशा और व्यंग्य के माध्यम से जहाँ सामाजिक पीड़ाओं एवम् विसंगतियों के कोने-कोने का सफ़र कराते हैं वहीं पारदर्शिता और प्रभावी बिम्बों की ताज़गी से बहुत प्रभावित करते हैं ।
चुप्पियों के
इक बसेरे में,
शब्द लड़ते हैं अँधेरे में ।
बोझ है सिर पर तनावों का,
दिख रहा चेहरा अभावों का,
कब तलक बैठें
बिचारे चुप
दर्द के सुनसान डेरे में
शब्द लड़ते हैं अँधेरे में ।
डॉ. अश्वघोष जो लम्बे समय से नवगीत पर कार्य कर रहे हैं , उन्होंने अपने समय के लगभग हर मुद्दे पर जिस पर किसी भी जागरूक नागरिक को चिंतन की आवश्यकता है, उस पर बहुत जागरूकता ,सजगता और तत्परता से लिखा है । मानव पीड़ा और व्यवस्था के विरोध की अभिव्यक्तियाँ आपके नवगीतों में बहुत प्रभावी ढंग से स्थान लेकर , मन-मस्तिष्क पर अंकित होकर रह जाती हैं ।
अश्वघोष जी के सरल - तरल , जीवन से जुड़े नवगीतों में उनकी लोक और समाज की वंचित इकाई के प्रति प्रतिबद्धता स्पष्ट प्रतिबिंबित होती है। बिना मानसिक व्यायाम कराये उनके नवगीत सीधी बात आम बोलचाल की भाषा में कह देते हैं , यही उनकी विशेषता है-और यही उनका शब्द सामर्थ्य भी । गीत को उनकी सूक्ष्म और संवेदनशील दृष्टि धार देती है और जमीन व लोक से जुड़ाव गीतों में उनकी प्रतिबद्धता को संलग्न करता है । सामाजिक पीड़ा से एकाकार हो उनका कवि हृदय शब्दों के मार्फत 360 डिग्री अभिव्यक्ति देता है ,जो गीत, कविता, ग़ज़ल का रूप ले लेती है।
आपके नवगीतों में बिंब निहायत धरती से जुड़े हुए तथा कथ्य सामाजिक विद्रूपताओं को उजागर करता है , उनकी वैचारिक भावभूमि से समान स्तर पर जुड़कर पाठक उस अहसास से जुड़ सकता है जो उन्होंने अपनी रचनाओं में उतारा है।'
डॉ अश्वघोष जी का मानना है कि " कवि के साहित्यिक जीवन में निरन्तरता आवश्यक है अन्यथा ठहर
नवगीत के इस एकांत साधक के अवदान का समुचित मूल्यांकन आवश्यक है , उनके देय पर साहित्य जगत ने सम्यक दृष्टि नहीं डाली है या यों कहें कि वे ही आज के ताम-झाम, सामाजिक टटकों के खाँचें में वे स्वयं को समायोजित नहीं कर सके।
कारण जो भी हों आपके रचनात्मक अवदान का समग्र आकलन शेष है।
आपका जाना बड़ी क्षति है।