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नहीं चाहिये अब मुहब्बत किसी की / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
नहीं चाहिये अब मुहब्बत किसी की
मिला सांवरा क्या जरूरत किसी की
तेरी याद में जो मज़ा आ रहा है
पड़े दूसरी अब न आदत किसी की
बसाया है जब साँवरे को नयन में
करें किसलिये अब इबादत किसी की
कली कंज पर ओस बूंदें लरजतीं
नहीं इनसे बढ़ कर नज़ाकत किसी की
है नाज़ुक बहुत फूल की पंखुरी भी
मसलने में है क्या शराफ़त किसी की
कमल की कली डर रही है भ्रमर से
नहीं उस से कोई अदावत किसी की
खयानत का रखता इरादा जो दिल में
सहेजेगा वो क्या अमानत किसी की
संभल कर कदम राह पर अब बढ़ाना
न होती यहाँ पर जमानत किसी की
न बासी पड़ी रोटियाँ ऐसे फेंको
बनेंगीं वो शायद नियामत किसी की