चाय की दुकान
ज़ोरदार झड़प।
दरक रही है मेज़।
अचानक सुन पड़ी चीख-
ज़मीन पर पाँव
और आसमान में हाथ। जुलूस।
बदल गया दृश्य।
हाथ से गुँथा हाथ।
ऋणी बना डाला
भूला नहीं
भूल सकता भी नहीं
यह जीवन में किसी दिन।
टूट रहे किनारे
राख के अन्दर चिलक रही
आग। हवा।
सुबह का वक़्त
किनारे पर पहुँचते ही
घाट की चाय सुड़कना।
सुर में सुर मिलाकर
हमने गाया है गान-
‘हमारी माँ बन्दिनी है।’
मैं भूला नहीं
और न भूलूँगा जीवन में कभी।
इस ओर घर
दूसरी ओर घर
बीच में पुख्ता दीवार।
दावत की पत्तल
बिछाकर खुश है
मक्कार सियार।
रूखे-सूखे चेहरेवाली
पूछ रही है माँ,
‘क्या नहीं दिया जो पाया?’
मैं भूला नहीं
और कभी नहीं भूलूँगा
जीवन में किसी दिन।