भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नारियल के दरख्तों की पागल हवा / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नारियल के दरख्तों की पागल हवा खुल गए बादबाँ लौट जा लौट जा
सांवली सर ज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा

गर्म कपड़ों का संदूक मत खोलना वरना यादों की काफ़ूर जैसी महक
ख़ून में आग बनकर उतर जायेगी सुबह तक यह मकाँ ख़ाक हो जाएगा

लान में एक भी बेल ऐसी नहीं जो देहाती परिंदे के पर बाँध ले
जंगली आम की जानलेवा महक जब बुलाएगी वापस चला जाएगा

मेरे बचपन के मंदिर की वह मूर्ति धूप के आसमाँ पर खड़ी थी मगर
एक दिन जब मेरा क़द मुक्कमल हुआ उसका सारा बदन बर्फ़ में धंस गया

अनगिनत काले काले परिंदों के पर टूट कर ज़र्द पानी को ढकने लगे
फ़ाख्ता धूप के पुल पे बैठी रही रात का हाथ चुपचाप बढ़ता गया