भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नासमझों को जो समझाए / जतिंदर शारदा
Kavita Kosh से
नासमझों को जो समझाए
कैसे समझदार कहलाए
क्या हंसने की यही सजा है
फूल खिले फिर मुरझा जाए
कल संभवतः आ सकता है
आज कभी भी लौट न पाए
उसे कहेंगे हम श्यामल घन
जो मरुस्थल की प्यास बुझाए
मैं रूठा हूँ सोच समझकर
शायद कोई मनाने आए
उचित है अधिकारों से पहले
व्यक्ति अपना फ़र्ज़ निभाए
भग्न महल की जर्जर भीति
धीरे धीरे ढहती जाए
पीछे मुड़ना यदि असंभव
व्यक्ति आगे बढ़ता जाए
जो सागर में गहरे उतरे
मोती वही ढूँढ कर लाए
विष को समझे अमृत प्याला
भक्ति तब मीरा कहलाए
मृगजल तो दिखता मरुस्थल में
धरती गीली हो न पाए
मैनें मांगी दूध कटोरी
सन्मुख क्षीर सिंधु लहराए