नियति / केशव
कहीं कोई अर्थ नहीं। न कहीं कोई दिशा
लौटकर सब ओर से बैठा है अपने पास
खुद से सच कहते हुए छूट जाता हूँ जहाँ
मिलते हैं सब वहीं । पहचान होती है वहीं रिश्तों की
मेरी। और वहीं होता हूँ सबका मैं
कैसा दुखद होगा ऐ नियति के लिए लड़ना
उस स्थिति में पहुँचकर अर्थ वहाँ मिलते हैं
अपने से झूठ बोलो जहाँ दुनिया को दो
एक नकाब और प्रतीक्षा करते रहो
दुनियाँ के नमक में अपने गलने की
इस जंगल के शोर में खोजते रहो कोई
सूना कोना जहाँ अपने से किया जा रहा सकता ह्ऐ
साक्षात्कार दुनिय्आ की भटकन से मिल
सकती ह्ऐ मुक्ति पर क्या है संभव उस कोने
की उपलब्धि जबकि अर्थ सारे झूठ के
किले में हों नज़रबंद और आप खड़े हों
कगार पर कभी देखें आगे कभी पीछे
जन्म लेता है भीतर के संसार सोचता
हूँ भर गया सूनपान तभी भीतर के
संसार में छिड़ जाता है शीतयुद्ध और उस
स्थिति में पहुंचकर बिना प्रयास ही सब
टूट जाता है फिर पता नहीं चलता कि
कितना छूट गया है बीनने में उन टुकड़ों को
उन्हें एक सिलसिला दे सामने रखकर देखने में
मुझे पता है वह जो छूट गया सब-कुछ
था वही जो मिला वह तो मात्र अवशेष
हैं उसके पर मैं धीरे-धीरे समझौता
कर लेता हूँ इस स्थिति से और इसी के
सब कुछ होने का भ्रम अपने भीतर बो
लेता हूँ खुद को सच प्रमाणित करने के
लिये कर लेता हूँ तैयार कई एक गवाह
अचानक भीड़ में से कोई फैंकता है
मुझपर पत्थर चौक़कर देखता हूँ खड़ा
हूँ कगार पर
तब मैं बिना सोचे भागने लगता हूँ पीछे
की ओर बेतहाशा तपती दुपहरों में
किसी छाया के टुकड़े की तलाश में
अर्थ सारे काँतों की तरह उग आते हैं मेरी
देह पर और दिशा बन जाती है हर वह
राह जिस पर मैं भागता जाता हूँ उस
स्थिति से बचने के लिए चारों ओर उग
आये भ्रम के जालों से मुक्त होने के लिए
तब लगता ज़िन्दगी दौड़ है यथार्थ से
भ्रम तक फिर भ्रम तोड़कर एक खालीपन
में आ गिरना और खोजते रहना खुद को
उस खालीपन में जो नियति है