नीरवता के स्पंदन / कविता भट्ट
मनध्वनियाँ प्रतिध्वनित करते, ओढ़कर एकाकीपन
प्रचुर संख्या में, चले आते हैं नीरवता के स्पंदन।
नीरवता के स्पंदनों को निर्जीव किसने कहा है?
प्रतिक्षण इन्होंने ही मन को रोमांचित किया है।
साँझ के आकाश पर कुछ बादल विभा के घनेरे से,
स्मृतियों में प्रणय-क्षण कुछ उस साथी के-मेरे से।
अन्तर्द्वन्द्वों के भँवर में खोया उद्विग्न सा मन,
बीते कल संग खोजता ही रहा उन्मुक्त क्षण,
और अब, चादर की सलवट से कभी बोलते हैं,
मेरे बनकर, परदों की हलचल से बहुत डोलते हैं।
हैं प्रतिबद्ध, यद्यपि हो निशा की कल-कल,
हैं चेतन प्रतिक्षण, यद्यपि दिवस जाये भी ढल।
मानव स्वभाव में व्यर्थ इनको न कहना,
ध्वनिमद के अहं स्वरों में कदापि न बहना।
अस्तित्व में विमुखता-अनिश्चितता है ही नहीं,
परन्तु संदेह-उद्वेगों की विकलता है ही कहीं।
अस्तित्व रखते हैं-नीरवता के स्पंदन,
निःसंदेह, हाँ वही-नीरवता के स्पंदन-
जिनमें है प्रशंसा, माधुर्य, स्मरण, चिंतन,
अपने भाव अपनी ही प्रतिक्रिया के टंकण।
सफलता-असफलता में वे ही पुचकारते हैं,
धीरे से- अधर माथे स्पर्श कर सिसकारते हैं।
रात को निश्छल किंतु सकुचाए चले आते हैं,
नीरवता के स्पंदन अकस्मात् मेरा दर खटकाते हैं।