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नौकरशाही का सच / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
कुछ पूँछ वाले
वफादार हैं, जो
दुम हिलाते हैं, चाटते हैं तलवे
रंगे सियार के…
और कर लेते हैं
कुछ पद/कुछ सुविधाएँ
अपने नाम!
कुछ मादाएँ हैं, जो
खुले आमंत्रण-पत्र सी
खिसयाती घूमती हैं…
ये खुले आमंत्रण
दिलाते हैं उन्हें पदोन्नतियाँ
और वो झूमती हैं
अपनी सफलता पर/
अपनी उँगली पर
डरे-सहमे शावकों को
नचाने का दंभ लिए!
इन नर-मादाओं के दम पर
चलती रहती है
रंगे सियारों की रोटी…
और वे, जो
जिनके नहीं है पूँछ
रीढ़ की हड्डी वाले
वे नर-मादा
पिसते हैं कोल्हू में
बैल की तरह
और खाते हैं
चाबुक भी, मगर
सुबह-शाम
फिर खड़े हो जाते हैं सीधे
अनवरत पिसते चले जाने को!
उनमें से अधिकतर
जहाँ से चलते हैं
अंत में भी खुद को
वहीं खड़ा पाते हैं,
अपनी नियति को कोसते हुए!