पगडंडी / मल्लिका मुखर्जी
बड़ी चका-चौंध है इस शहर में !
चौड़े-चौड़े रोड
जो रात भर नियोन लाइट की रोशनी से
जगमगाते रहते हैं ।
कतार से चलती हैं कारें, स्कुटर्स, बसें,
दोनों ओर खड़े हैं
आलीशान टावर्स, शोपिंग मोल्स, मल्टीप्लेक्सीस,
पार्टी-प्लोट्स, होटल्स, कल्ब हाउसीस-
फिर भी न जाने क्यों
इतनी बेजान-सी लगती है
मुझे यह चहल-पहल !
तलाशती हूँ मैं
मेरे गाँव की उस पगडंडी को
जो मेरे घर के आँगन से निकलकर
नेरोगेज की रेल्वे लाइन को पार करती हुई
उस कुएँ के पास खड़े
बरगद के पेड़ के पास से गुजरकर,
खेतों के किनारे-किनारे
बलखाती नागिन की तरह
आगे बढ़ते हुए
मेरे स्कूल तक पहुँचती थी !
जिस के दोनों ओर खड़े इमली के पेड़
मुझे जानते थे,
बेरी का पेड़ भी मुझे पहचानता था ।
स्कूल बेग कंधे पर झुलाते हुए
उछलती-कूदती
जब मैं स्कूल के लिए निकलती,
थूहर की बाड़ से लिपटी लताएँ
मुझे देखकर मुस्कुराती थी,
खेतों में लहराते गेंदा फूल के पौधे
मुझे छूने को तरसते थे ।
उसके किनारे बिछी हरी-हरी दूर्वा का
कोमल स्पर्श
आज भी महसूस होता है पाँवों में !
कोई लौटा दो मुझे मेरी वह पगडंडी
जो मेरे साथ चलती थी !