पतझड़ तो एक बहाना है।
मकसद वसंत का आना है।
क्यों मोल लगाते गैरों का ,
खुद को ही कब पहचाना है।
तितली पर पहरे हो कितने
उसको मकरंद चुराना है।
काँटे तो पोर-पोर होंगे
पर फूलों को मुसकाना है।
रातें कितनी हों अँधियारी ,
दीपक को धर्म निभाना है।
चिंगारी को रखना जीवित
यदि खरपतवार जलाना है।
बीते हैं कल्प यत्न करते
‘पर ये रहस्य अन्जाना है।