Last modified on 22 अगस्त 2009, at 13:38

पत्तियाँ हो गईं हरी देखो / शीन काफ़ निज़ाम

पत्तियाँ हो गईं हरी देखो
ख़ुद से बाहर भी तो कभी देखो

फिर खिली क्या कोई कली देखो
शोर है क्यूँ गली-गली देखो

याद और याद को भूलाने में
उम्र की फ़स्ल कट गई देखो

मार<ref>साँप
</ref> कोई शिकार पर निकला
दश्त में रोशनी हुई देखो

रात की राख मुँह प' मल-मल कर
सुबह कितनी सँवर गई देखो

सुबह की फ़िक़्र बाद में करना
रात कितनी गुज़र गई देखो

ज़िंदगी किस तरह तुम्हारी "निज़ाम"
उलझनों से उलझ गई देखो

शब्दार्थ
<references/>