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पत्थर के सीने पर घास / रजत कृष्ण

कभी दो ईंटो बीच
किलकते-उमगते
दिख जाते हो तुम
कभी खपरैलों पर जमी रह गई
धूल की परतों पर पसरते हुए।

छोटा था जब
एक उम्रदराज पेड़ की खोह में
तुम्हारा हरियाना देखा था
और एक बार घर पिछवाड़े
टूटहे जूतों की तली में
अँखुआना भी,
पर आज तो
कॉलेज के रास्ते बाजू
बड़े से पत्थर के सीने पर
जी भरकर हुलसता देखा तुम्हें !

दुःख से काठ हुआ जाता मन मेरा
तुमसे हिल-मिल कर
हरियल हुआ
पथराते सपनों की तलहटी को मेरे
तुमने मन-प्राण से छुआ !!

(पंजाबी कवि पाश से क्षमा याचना सहित, जिनकी ‘घास’ कविता कभी पढ़ी थी और उसका प्रभाव मन में बना हुआ है।)