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पदचाप / विमलेश शर्मा
Kavita Kosh से
कुछ दरवाज़े जुड़कर
नि:स्पृह हो जाते हैं
यांत्रिक होकर वे भूल जाते हैं
उस स्पर्श को
जिन्होंने सदियों खटखटाया था
उन घुमावदार कुण्डियों को
बाहर बिसूरती हैं वे आँखें
जिनका नमक बेमानी था
किसी प्राथमिकता के आगे
कोई लौटता है
कोई छूटता है
कोई यूँही ठिठक कर
टूट-टूट जाता है!
*नि:स्पृह , निस्सपृह शुद्ध प्रयोग हैं।