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परत दर परत / संगीता गुप्ता

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परत दर परत
उदासी के कोहरे को
पार कर
मैं पहुँची सूरज के पास
तबदील हो गया
उसका चेहरा तुम्हारे चेहरे में
देखती रह गयी उसे
हतप्रभ मैं
लगा जैसे
खो गई हूँ
किसी ख्वाब में

अगले पल
इस एहसास से
भारी हो गया मन कि
न तो सूरज समा सकता है
मेरी मुट्ठी में
न तुम

सूरज तो उन सभी का है जो इन्तजार में हैं सुबह की