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परदा / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
बेहद खूबसूरत था वह परदा
जिसके पीछे
चलती थी साजिश
हत्या की
यहाँ सहचरों को चुन-चुन कर मारा जाता था
कोई कछुवे का गोश्त चबा रहा था
तो कोई पी रहा था सरीसृप का रक्त
गेंडे की सींग से चाहता था कोई
बलशाली बनना तो कोई
बाघ की अस्थि का उड़ा रहा था शोरवा
कोई ढूंढ रहा था वियाग्रा
कोई फांक रहा था अश्वगंध
पूरी की पूरी जन्नत कब्जियाना चाहता था
हर कोई
किसी ने आँखों पर परदा डाल रखा था
तो किसी ने दिमाग पर
ये वही शख्सियत थे जो किसी
पर्दादारी के विरोध में
प्रथम पंक्ति के प्रवक्ता माने जाते थे
इस तबके की ताकत इतनी थी कि
जब कभी परदा हिलता था इनका
एक प्रजाति धरती से
फ़ना हो जाती थी !