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पलक झपकने में / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
देखो
पत्ता... वह टूटा
टूट कर अब गिरा
....अब गिरा
फिर देर तक
हवा में तिरता चला जाएगा
सिहरते किसी आशय की ओर
पलक झपकेगी
और कोई
बुढ़ापे की दहलीज प’
क़दम रख कर लौट रहा होगा
झर रही दुनिया में,गिरने के लिए
ठीक पत्ते की तरह;हवा की लहरों पर