भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पल / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल के पास
रखने चाहे
सुख के पल
लेकिन,
यूँ फिसले हाथों से
जैसे फिसलती है रेत
अंजुलि में ठहरता नहीं पानी जैसे
पारे की चुटकी भरते
जैसे भीगती नहीं अँगुली
हाथों से जैसे
फिसल जाती है मछलियाँ
देखते देखते
यूँ हाथों से निकल गए
सुख के पल

भूलने चाहे बहुत
दुख के पल
यादों के परिंदों को
उड़ाया बहुत बार ताली बजा
पर यूँ रहे साथ सदा
जैसे जिस्म में खंजर घुसता
जैसे शिलालेख के शब्द
पुरानी पीड़ा जैसे कोई जाग उठती
कभी न कभी

दुखों के पल
लाख हटाने पर भी
यूँ रहे साथ सदा

आदमी
जिन पलों को
सहेजना चाहता है सीने में
वह पल भर में
उड़ान भर कर
निकल जाते हैं दूर कहीं

और जिन पलों को
भूलना चाहे
वे उसके सीने में
चुभे रहते हैं
ज़हरीले तीर की
नोक बनकर ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा