पहाड़ा / शब्द प्रकाश / धरनीदास
1. एका एक मिलै गुरू पूरा, मूल मंत्र तब पावै।
सकल साधुकी वानी बूझै, मनहिँ प्रतीति बढ़ावै॥1॥
2. दुइया दुई तजै जो दुविधा, रज गुन तब गुन त्यागै।
सत गुन मारग उरध निरखै, तब सोये उठि जागै॥2॥
3. तीया तीन त्रिवेनी संगम, सो विरले जन जाना।
अजपा जाप जपे अमि-अंतर, उरध कमल धरि ध्याना॥3॥
4. चौके चारि चतुर जन सोई, चौथे पद को लागै।
चढ़ि के हर्षै डोले झूलै, चित अनुभव अनुरागे॥4॥
5. पँचयँ पाँच पाँच वश करिके, साँच हिये ठहरावै।
इडला पिडला सुषुमन शोधै, गगन मंडल मठ छावै॥5॥
6. छक्के छव चक्कर जो छेदै, शून भवन मन लावै।
विकसित कमल कया-परिचय हो, तब चन्दा दर्शावै॥6॥
7. सतयँ सात सहज धुनि उपजै, सुनि 2 आनँद बाढ़ै।
सहजै दीन-दयाल दयाकरि, बूड़त भव-जल काढ़ै॥7॥
8. अठयँ आठ अकाशहिँ निरखो, दृष्टि अलोक न होई।
बाहर भीतर सर्व निरंतर, अंतर रहे न कोई॥8॥
9. नव्वें नव भौ नेह निरंतर, दह दिशि प्रगटीजोती।
अमृत बरसै दामिनि दरसै, निझर झरै मनि मोती॥9॥
10. दसयँ दस यहि देह पापके, जिन पढ़ एक पहारा।
धरनीदास तासु पद वंदै, निशि दिन बारंबारा॥10॥