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पाँचवा सर्ग / कच देवयानी / मुकुन्द शर्मा

विदाई समय अभिशाप

शिशिर आल झर गेल पेंड़पीत पत्र,
शशक गिलहरी दौड़ल यत्र-यत्र।
पेड़ निर्वस्त्र होल नगन होल डाल,
जाड़ा से छुटकारा पैलक सब बाल।
उदयाचल भोर के किरण से लाल,
प्राची के मांग रंगल हे दीप्त भाल।
उगल सुरूज लाल-लाल,
नर्मदा में स्वर्ण सुभग, लाल हे ताल।
आल धरती पर अब शिशिर के काल,
गेहूँ गदराल हे निबुओ फुलाल।
शिशिर बाद उतरल धरा पर वसंत,
शिशिर में सेमल लगोहल नागा संत।
आम मंजराल फूलल सरसों पियराल,
धरती पर लगल पियर साड़ी फैलाल।
कूके कोइलिया पंचम स्वर में भोर,
पाटल खिलल हे सुधि आवे पुरजोर।
सेमल पर उतर गेल पूरा वसंत,
कांचनार खिलल रूप मोहक अनंत।
पीत शुभ्र अमलतास लटकल हे हार,
काम कुसुम वाण से करो लगल रार।
टेसू में आग लगल सहजन इतराल,
उतरल वसंत मधुर मंदमंथर चाल।
वन कानन नव पल्लव मोहे सब लोग,
धरती पर दिखो लगल वासंती योग।
मंद गंध हवा चलल फागुनी वयार,
प्रेम पत्र भेज रहल मौसम कुमार।
प्रेम के सागर में उठले तरंग,
बदल रहल प्रकृति परी के रंग ढंग।
ऋतु के राजा ई अइले वसंत,
हर्षित होल घर-घर संयोगीकंत।
तीसी फुलाल करे नभ से होड़,
नव पल्लव लाल लगे शुक्र-चंचु ठोर।
जंगल पहाड़ में फैलल वसंत,
अभियो एजातप करे साधक संत।
रेवातट आश्रम में देवयानी मन,
क्षण-क्षण परिवर्तित हो रहल चिंतन।
पैलक गुरुज्ञान कच होल पूर्ण काम,
सूना कि करत कच अब हमर धाम।
रेवा के धारा में अविरल प्रवाह,
देवयानी के मन में उमड़ रहल चाह।
नहा-धो पूजा पाठ करकके कच आल,
कैलक प्रणाम पुछलक देवयानी हाल।
कैलक निवेदन देवी पूर्ण होल इच्छा,
गुरु के कृपा से सफल होलूँ परीक्षा।
यज्ञ पूर्ति में देवी तोर बड़ी हाथ,
गुरु के साथ तोरो झुकावो ही माथ।
देवयानी विदा बेला पहुँचल हे आय,
हम तोरा से मांगे ले अयलूँ विदाय।
बीतल यहाँ बहुत साल अइलोंकैलों प्रवास,
गुरु के कृपा से मिलल नया उजास।
तोरे कृपा से गुरु के बनलों शिष्य,
नाच रहल आगे में पिछला सब दृश्य।
कैलक संहार असुर तोर उपकार,
पिताजी के कहको जिएैला तीन बार।
विद्या संजीवनी के हमर पूर्ण यज्ञ,
तोंही सफल कैला हम ही कृतज्ञ।
रोम-रोम हे कृतज्ञ हम ही आभारी,
देखलों नय ऐसन हम पहिले उपकारी।
गरिमा महिमा से तों भरल बड़ी नारी,
तोरा सामने लगेहे बौना संसारी।
सुर, नर, असुर में तों हा बड़ी देवी,
मानवता के तों तो हा बड़ सेवी।
पूर्ण काम होलों हम लौटभ स्वदेश,
तोर कृपा के ध्यान रक्खम विशेष।
विदा दा देवयानी मंगल आशीष,
आश्रम में रहलों हम कतना बरीस।
सबकुछ याद आ रहल हें ई बेला,
मानस में उमड़ल हे भावभरल मेला।
तोंही हमर साधना के कैली साकार,
देवता मनुज के उद्धार के आधार।
तोरा बिना हम तो रहतों हल अपूर्ण,
हमरा बनैला देवी तोंही सम्पूर्ण।
विदाई के आज्ञा दा हमरा सोल्लास,
धरती के बाट जोह रहल हें आकाशं
करबद्ध बनल कच देवी के समक्ष,
अपन सब भाव के कैलक प्रत्यक्ष।
देवयानी अब तक बनल हल निर्वाक,
निर्निमेष कचके रहल हल ऊ ताक।
पूछे लगल कचके सच सच बतावो,
हमरा सामने तों नय कुछ छिपावो।
पूर्ण होलो कामना कि आर कुछ बाकी।
याद आ रहलों हें कुछ पिछला झांकी,
केवल संजीवनी सीखके विदाय।
अन्तर्मन जाने के करो कुछ उपाय,
कच कहलक अब तो कुछ नयहे शेष,
बड़ी दिन भेल हम लौटभ स्वदेश।
याद आ रहल हें गोचारण के दिन,
मन के दर्पण में स्मृति अनगिन।
नर्मदा किनारे के जीवन पावन,
पर्वत पर घिरल मेघ आल सावन।
झिर-झिर हवा में जब बरसोहल मेघ,
तोर याद बनल रहत सब दिन थेघ।
कल-कल छल-छल करे नर्मदा के धारा,
बैठ तप कैलों हें एकरे किनारा।
तोरो निहारलों हल हम कत्ते बार,
भावना के उठल हल हृदय में ज्वार।
छाया में बैठ हम गैलों हें गीत,
याद आ रहल हें अभी पूरा अतीत।
दूध हम पीलों तों आश्रम के गाय,
हमरा बचैला तों असुर अन्याय।
साधना तपस्या मंे रहलों हम लीन,
नर्मदा के तट पर बजैलों हें बीन।
देवी तो पूर्णता के पूर्ण अवतार,
तोरे सहारे कैलों ज्ञान-गंगा पार।
प्रसन्न मन विदा दा सबकुछ मिल गेल,
‘बोल बन्धु प्रेम के मुरझाल काहे बेल।’
देखलों हें तोरा में हम प्रेम-पराग,
बैठ के उचरो हल अंगना में काग।
खाली डाली में तो चुनो हला फूल,
पेड़ पौधा सिंचला हल नर्मदा के कूल।
हमरा बचावे ले कैला गाय-सेवा,
मनुज हला लेकिन बनगेला हल देवा।
हमर सुन्दरता पर होला लुब्ध-मुग्ध,
लौटे के कैला विचार होके क्षुब्ध।
दोनों में बढ़ गेल प्रेम पारावार,
तों बन गेला हमर जीवन आधार।
तों हमर आशा हा प्रेम-परिभाषा,
तोरा विदाई से हमरा निराशा।
याद हऽ ऐलाहल तों बनल विपन्न,
पिताजी के कहको हम कैलियो सम्पन्न।
तोर यज्ञ के हम करवैलियो हें पूर्ण,
विदा सुनके हमर भावना सबहे चूर्ण।
बन्धु हम कैलों हें तोरा से प्रेम,
हम तोर कुशल चाही तों हमर क्षेम।
उमड़ रहल नेह हमर घुमड़ रहल मेह,
एजै बसैवे दोनों मिल के गेह।
तोरा बिना हम कैसे रहवे एकाकी,
पूरा होलो विद्या पर प्रेम अभी बाकी।
निर्मम बन जायके करो नय विचार,
जीत गेला तों हम, रहलूँ हें हार।
प्रेम के ई धागा के तोड़ो नय बन्धु,
लहरा रहल हें नारी मन के प्रेम-सिन्धु।
रेवा के तट पर बनैवे नया गेह,
उमड़ल घटा है बरसतै अब मेह।
बहलै पुरबैया दर्द करै पोर-पोर,
नाचो लगलै मन में प्रेम के मोर।
केवल विद्या से नय बनतै काम,
प्रेम स्वर्गीय सुख प्रेम शांति धाम।
तोड़ो नय प्रेम बंधु छोड़ो नय साथ,
धरती के छोड़ हमरा करो नय अनाथ।
परम पुनीत तरुण-तरुणी के विवाह,
जीवन के उत्सव ई भरल उछाह।
हमर तोर विवाह से होतै सगरोमंगल,
हर्षित होतै पहाड़ और सगर जंगल।
है विवाह गार्हस्थ्य जीवन में पर्व,
हमर तोर ब्याह पर सबके होतै गर्व।
जीवन के उत्सव से भागना कायरता,
ई विवाह परम्परा-संस्कृति के अमरता।
धरती के जीवन में विवाह कंचन,
ई विवाह मुक्ति हे न´् बंधन।
सृष्टि के बढ़ावे ले करो विवाह,
प्रेम परिपूर्णता के ब्याह पूत राह।
दूगो आत्मा के मधुर मिलन हे यज्ञ,
विधि, हरि, हर जाना हका सर्वज्ञ।
स्वर्णिम शिखर गृहस्थ जीवन के विवाह,
तरूणाई में जागे सबके ई चाह।
नारी-नर जीवन पथ के हे संबल,
ई विवाह पावन, शीतल यथा गंगाजल।
विष्णु, शिव, राम भी कैलका विवाह,
करो तों विवाह भरो मन में उत्साह।
तोरो मन में लहरैलो प्रेम पारावार,
अब काहे भागाहा करो विचार।
प्रेम आत्मा के ज्योति प्रेम हे समर्पण,
उभय आत्मा के शुद्धभाव निर्मल दर्पण।
कच देवयानी के कथा बनतै अमर,
दोनों के प्रकाश से प्रकाशित होतै घर-घर।
ब्याह न´् समस्या है ई है समाधान,
करो ब्याह हमरा से नारी-सम्मान।
तोरा पर समर्पित न्यौछावर हे प्राण,
हमर भावना के तों करो सम्मान।
कैला हें देवी हमर बड़ी उपकार,
हमर विद्या, ज्ञान के तों सबल आधार।
तोरा देख-देख के निहाल ही हम,
हमर प्रेम तोरा से कहियो नै कम।
देह-प्रेम वासना हे, अपार्थिव हे प्रेम,
हृदय-हृदय प्रेम हे अलौकिक क्षेम।
प्रेम हृदयस्थ हे ई नय स्थूल,
प्रेम बड़ी सूक्ष्म हे, पंथ में बबूल।
प्रेम हे प्रकाश, प्रेम सृष्टि उल्लास,
प्रेम जीवन उत्सव हे प्रेम मुक्त हास।
प्रेम निस्सीम हे, प्रेम आकाश।
प्रेम चाँदनी है प्रेम सूर्य के प्रकाश।
प्रेम शीतलता है सुरभित वातास।
प्रेम जीवन संबल हे प्रेम महा पंथ,
आत्मा के मन में लिखल हे ग्रन्थ।
प्रेम नय देह प्रेम आत्मा हे मन,
प्रेम नय टाँकी ई कुन्दन कंचन।
प्रेम हे साधना, आराधना तपस्या,
प्रेम हे समाधान ई नय समस्या।
देवी मंे देखलों हम प्रेम अवतार,
सच कही सेवक के तों हृदय-हार।
बन्धु हम समर्पित कर देलों हल प्राण,
पूरा करो तों अब गावो प्रेम गान।
ही हम ही तोर संजीवनी के मूल
तोरा कैलों सोना हम अपने ही धूल।
बंधु देवयानी तोर माया नय, छाया,
अर्पित करो ही तोरा तन मन अपन काया।
पुरुष सूर्य नारी ओकर चमचम किरण,
पुरुष सिंह नारी है सुन्दर हिरण।
पुरुष आकाश नारी नीलिमा गहन,
पुरुष गगन चाँद नारी शीतल किरण।
पुरुष सागर हे नारी उच्छल तरंग,
पुरुष शुभ्र धूप धाम नारी लाल रंग।
नारी बिना धरती समूचे निष्पंद,
नारी दया, करूणा, ममता के छन्द।
नारी हे सजल घटा सावन के मेह,
नारी बिना जीवन शून्य नारी शांति-गेह।
नारी तपिस जेठ में है शीतल छाँह,
नारी पुरुष के बनावे सबल बाँह।
नारी में लहरावे प्रेम पारावार,
नारी समूचे सृष्टि के आधार।
पुरुष है शरीर नारी ओकर धड़कन,
नारी रेती में हे सुधा वर्षण।
नारी बसंत हे, पुरुष हे निदाघ,
नारी शीतल समीर, पुरुष उष्णताप।
नारी हे आदिशक्ति, भगवती माता,
ओकर समक्ष बौना हका विधाता।
नारी हे जननी, भगिनी सुंदरतम जाया,
भरमैलक भटकैलक जे कहलक माया।
नारी सृष्टि के कारण नारी ओकर प्राण,
वेद भी कैलक हें नारी गुणगान।
पुरुष पहाड़, नारी मधुर óोतस्विनी,
घर-बाहर नारी हे साधिका तपस्विनी।
नारी नय कामना हे वासना के मूरत,
सबसे सुंदर जग में नारी के सूरत।
बंधु ऊ नारी के मानों तों बात,
तोड़ो प्रेम बंधन नय करो न´् आघात।
सबेरे से शात तम जोहलों हें बाट,
अन्तर्मन दूरी के देलों हम पाट।
बाधा विपदा के हम देलियो हल छाँट,
अब काहे अप्पन मन के रहला बांट।
चलतै अकेले न´् जीवन के नाव,
बंधु सकल सृष्टि पर नारी प्रभाव।
पुरुष अगर फूल हे तो नारी सुगंध,
नारी ई सृष्टि के हे अनुपम प्रबंध।
नारी बिना समूचे जीवन हे व्यर्थ,
नारी छोड़ भागना हे भारी अनर्थ।
के कहलक नारी पराजय? ऊ हे जय,
शांति, सद्भाव, प्रेम-पुंज अक्षय।
नारी जीवन में कर रहल तपस्या,
नारी हे समाधान ऊ न´् समस्या।
नारी सबके घर के रामवाण दवा,
नारी उष्ण ताप में शीतल वसंत हवा।
थकल किसान, बनवासी ले मलय पवन,
नारी ई धरती पर सब दिन सुरभित चंदन।
नारी-निवेदन के न´् ठोकरायो,
तोरा अपनै लियो हम तों अपनावो।
भागो न´् छोड़को करो माटी से नेह,
सुरपुर है सुखी मानो धरती के गेह।
जड़ता, गरीबी, अशिक्षा करो दूर,
मृतप्राय गिरिजन सब दुख से है चूर।
रोक, शोक, निर्धनता से हो संघर्ष,
दीन, हीन, अर्थहीन के करो उत्कर्ष।
बेटी से भागो नय करो ओकर रक्षा,
सभे निरक्षरा के दा घर-घर शिक्षा।
मानव से मानव के जोड़ो नया सेतु,
फहरावो धरती पर बन्धु विजय केतु।
हम तों मिलके रोको नारी उत्पीड़न,
नारी के देवे पड़तै अब नया जीवन।
गुरुसुता न रोको हमरा अब स्वर्ग पुकार रहल हैं,
बेचैन बनल हे सुरपुर धरती के निहार रहल हें।
ई प्रेमग्रंथ पर चलना देवी आसान न राही,
पैलांे आश्रम में सब कुछ अब हमरा कुछ न´् चाही।
संयोग-वियोग धरा हर हय उभय सहोदर भाई,
सुन-सुन गुरु-सुता अधीरा मन में थोड़े भरमाई।
कुछ आर न तोरा चाही विद्या के केवल याचक,
कैलों हम बहुत निवेदन वनलों आश्रम के बाचक।
कच प्राण देह अर्पित हे स्वीकारो बनके स्वामी,
हे प्रेम हमर तो निश्छल जाने हे अन्तर्यामी।
कच विकल बनल सब सुनक तो गुरू पुत्री हम भाई,
गुरू पुत्री हमर बहन हे कैसे हम बनब जमाई।
कच ई सब बड़ा बहाना हो गेलो स्वार्थ तोर पूरा,
लेकिन हम्में जे सोंचलों ऊ सब कुछ रहल अधूरा।
स्वारथी देवता सब दिन सुरपुर के तों हा वासी,
हम बहुत निवेदन कैलों तब भी न बनैला दासी।
उगले हल धन पनसोख लेकिन ऊ अभी बिलैले
आशा के दीप बुझैलै सबकुछ स्वार्थ में समैलै।
कच के विदाई सुन आश्रम श्रीहीन,
गाय हिरण सब्हे लगे हे बड़ी दीन।
काने हे गाय कीर गौरैया मूक,
देवयानी के मन में उठ रहल हूक।
भाई-बहन केई नाता देलक जोड़,
हमरा आश्रम में अकेले रहल छोड़।
दुख देखलों हें हम जीवन भर घोर,
पकड़े ले चाहो हलों तरूण के डोर।
मगर ऊ देलक हें सबकुछ तोड़,
आश्रम, हमरा से ऊ मुंह रहल मोड़।
हाथ ई विदाई के आल कैसन बेला,
खड़ा हो रहल हें अब बड़का झमेला।
कच बड़ी निर्दय तों बहुत बेपीर,
झरो लगल आँख से देवयानी नीर।
कच कहलक देवयानी बनो नै अधीर,
नर्मदा के पास बहे शीतल समीर।
देवी तों नारी के पूर्णता हा धन्या,
भृगुवंशी शुक्र गुरु के महीयसी कन्या।
प्रकृति के सुन्दरता तोरा मंे समाल,
देवी अभी तों अपना के संभाल।
हमरा तो पूरा करेके हे कर्त्तव्य,
लौटे के हमरा, ई धरती हे भव्य।
देवयानी पूर्ण होल हमर सब आशा,
लौटे के हमरा, ई धरती हे भव्य।
देवयानी पूर्ण होल हमर सब आशा,
लौटे के आशा दा बदल रहल पासा।
दृढ़ता पर चरण घैलक कच होल खड़ा,
झुकल ऊ तनिके न´् मन कैलक कड़ा।
देवयानी में उमड़ल क्रोध पारावार,
लगल कि क्रोधित सुनामी के धार।
सुनो कच नारी के कैला अपमान,
हम प्रेम नदी तों बनला पाषाण।
पुरुष, कठोर हम रहम एकाकी,
स्मृति के शूल चुभत बहुत कुछ बाकी।
गाते रहब आश्रम में बैठ विहाग,
कर्पूर सन उड़ गेल सब प्रेम राग।
चुभते रहतै मन में स्मृति-शूल,
रोपलों गुलाब सब बन गेल बबूल।
कड़कल बिजली घन गरजल घोर,
देवयानी बनगेल सहसा कठोर।
लगल कि फटलै ज्वालामुख पहाड़,
याकि बन बीच कजै सिंह के दहाड़।
देवयानी कहलक हम देही अभिशाप,
विद्या जे पैला ऊ भूल जैवा आप।
रहवा भारवाही न´् करवा प्रयोग,
भूल जैवा समय पर आते संयोग।
सबके सिखैवा-पढै़वा बस काम,
अपने नै केकरो जिलैवा, जा धाम।
आशीष के बदले ऊ पैलक अभिशाप,
काँप गेल धरती बदलल कार्यकलाप।
कच सुन हतप्रभ होल बनल बेचैन,
देवी हमर जीवन में आल कारी रैन।
साधना तपस्या सब होल निष्फल,
पूरे जीवन में रहत हलचल।
फूलवत् कोमल, होला प्रस्तर कठोर,
तोड़ देला स्वर्गआर धरती के डोर।
देना नय चाही देवी ऐसन शाप,
मन ही मन कच कैलक आत्मालाप।
सेवा बड़ी कैला बचैला हमर प्राण,
एकरा न´् भूलम हम ऋणि इंसान।
देवी अभिशाप देला हम देही वरदान,
सुखी सब दिन रहो देवी धर्म-प्राण।
गौरव-गरिमा से सम्पन्न देवयानी,
लोग सब जानतो गौरवपूर्ण प्राणी।
कचके अभिशाप मिलल देवी के आशीष,
दोनों के मन में समाल हल टीस।
देवयानी मूर्तिवत् आँखहल बंद,
लौट गेल धरती से स्वर्ग के छन्द।