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पाँड़े जी / उदय प्रकाश
Kavita Kosh से
उस दिन पाँड़े जी
बुलबुल हो गए
कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा
कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का,
धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी ।
और ठुनकती चल पड़ी
छोटी-सी काया उनकी ।
छोटी-सी काया पाँड़े जी की
छोटी-छोटी इच्छाएँ,
छोटे-छोटे क्रोध
और छोटा-सा दिमाग़ ।
गोष्ठी में दिया भाषण, कहा--
'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है'
फिर हँसे कि 'मैंने देखो
कितनी गोपनीय
चीज़ को खोल दिया यों ।
यह तीखी मेधा और
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।'
एक स-गोत्र शिष्य ने कहा--
'भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर
तथ्यपरक और विशलेषणात्मक
हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर
अस्तबल में
आप ही हैं एकमात्र
काबुली बछेड़े।'
तो गोल हुए पाँड़े जी
मंदिर के ढोल जैसे ।
ठुनुक-ठुनुक हँसे और
फिर बुलबुल हो गए
फूल कर मगन !