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पाटों के बीच / राम सेंगर
Kavita Kosh से
पिसना दो पाटों के बीच ,
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!
तने हुए मुक्के पर
टाँग ले सवालों को,
धैर्य-धर्म की डफली
और नहीं पीट गला फाड़ कर ।
ड्योढ़ी पर खड़ा-खड़ा
गुलुर-गुलुर क्या करता,
चीर कर झपट्टों को
दे लातें ज़ोर से किवाड़ पर ।
पूँजी का दिया हुआ घाव नहीं भरने का
सुविधा के दोने को छुला नहीं माथे से
रबड़ी में मिली हुई कीच !
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!
भभ्भड़ में बात नहीं
सिर्फ़ लोंडहाई है ,
काट त्यौरियों के इस
माथे पर पुरे हुए जाल को ।
भीतर का झन्नाटा
पक-पक कर लाल हुआ,
उड़ा हुआ सुर्रा है —
मछली ने पी डाला ताल को ।
नट-कँजड़ शैली में , पाँवों में बाँस बान्ध
वहीं-वहीं क़दमताल करना, मर जाना है,
रूपक दूजा कोई खींच !
ओफ़्फ़ !
त्रासदी कितनी नीच !!