भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिता का पत्र / नील कमल
Kavita Kosh से
सोचता हूँ क्या लिखूँ उत्तर में
पिता का आया है पत्र जब से
पत्र में बोलता है चेहरा
चेहरे से लापता हैं कोमल रेखाएँ
रेखाएँ निर्मम दिल्ली की सड़कों-सी
पेशेवर भाषा में करती हैं संवाद
कुशल-क्षेम की भाषा पत्र में
सिरे से दिखती है ग़ायब
ग़ायब है पत्र से हाल-चाल लेती
वह नर्म-मुलायम बातचीत
सिर्फ़ हिदायतें होती हैं अक्षरों में
जो पत्र के साथ रचती हैं परिधि
परिधि के बाहर खड़ा किया जाता हूँ
मैं, केन्द्र में बोलता है चेहरा
चेहरा सूचना की भाषा में
रखता है एक परियोजना
कि गुड़िया की शादी की ख़ातिर
बंद हों तो हों अन्य सारी परियोजनाएँ
कैसे मुमकिन है यह, पूछता हूँ ख़ुद से
पिता का आया है पत्र जब से ।