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पीर कुछ ऐसी / हरीश भादानी

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पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात.....
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली


    बहुत घुली
    घुल-घुल गहराई
    बदरी विरहा साँस की


    उलझ-उलझ
    पथ भूली गंगा
    सपनों के आकाश की


रही तड़पती
बिजुरी-सी आधी बात
    ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    बहुत झुरी
    झुर-झुर कर रोई
    मन की आस अभाव में


    अनजाने
    अनगिन तट देखे
    आँसू के तेज बहाव में,


सूनेपन में
कुछ अपना लगा प्रभात
    धूप कुछ और सलोनी होकर निकली


पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और.....


    रात चली
    रोती-रोती
    इस धरती का सिंगार कर


    सातों स्वर
    ले आई किरणें
    कली-कली के द्वार पर
सहमी-सहमी
कुछ जगी हृदय की साध
    साँस कुछ और सयानी होकर निकली


पीर कुद ऐसी
बरसी सारी रात
    भोर कुछ और सुहानी होकर निकली