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पीलिया / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
शहर को कुछ हो गया है
पीलिया-सा
आंँख में भी रंग है
उसका सजीला
यह नहीं कि
झूठ का है रंग पीला
रह रहा है सबमें वो ही
भेदिया-सा
आदतों से इक मशीनी
है क़वायद
आदमी से चेतना की
गंध गायब
चेहरे में है कोई
बहुरूपिया-सा
खोखले संवाद में हैं
शब्द केवल
हम खुशी के आंँसुओं में
पी रहे छल
खींचती है एक चुप्पी
हाशिया-सा।