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पुकारता पपीहरा पि...या पि...या / हरिवंशराय बच्चन
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पुकारता पपीहरा पि...या, पि...या,
प्रतिध्वनित निनाद से हिया-हिया;
हरेक प्यार की पुकार में असर,
कहाँ उठी,
कहाँ सुनी गई
मगर!
घटा अखंड आसमान में घिरी,
लगी हुई अखंड भूमि पर झरी,
नहा रहा पपीहरा सिहर-सिहर;
अधर---सुधा
निमग्न हो रहेए
अधर!
सुनील मेघहीन हो गया गगन,
बसुंधरा पड़ी हरित बसन,
पपीहरा लगा रहा वह रटन;
प्रणय तृषा
अतृप्त सर्वदा
अमर!