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पुराना डाकख़ाना / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
चौड़ी सड़कों में दबे
पानी के बाँध में समा गए
शहर की तरह एक दिन तुम भी
तमाम मुर्दा चीज़ों में शुमार हो जाओगे
वक़्त की चाबुक से छिल गई है राब्ते की पीठ
कुछ शब्दों को नकार दिया है
कुछ पुराने पड़ गए शब्दों को
मिट्टी में दबा दिया है
उखड़ी सड़क, झाड़-झँखाड़
और अकेले खड़े तुम
रोज़ अन्दर-ही-अन्दर का
ख़ालीपन गहरा होता जाता है
पुराने धूल भरे कार्ड
पत्रिकाएँ, बेनाम चिट्ठियाँ
जाने कहाँ-कहाँ भटकी हैं
कुछ आँखें धुँधला गई होंगी इन्तज़ार में
कुछ आँखों से बहता होगा काजल
कुछ आँखें को आज भी इन्तज़ार है
गुम हुई चिट्ठियों के मिलने का।