भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुलिन / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूर्य थका-ऊबा डूब रहा है
पंछी थके-ऊबे लौट रहे हैं
पेड़ थके-ऊबे निंदिया रहे हैं
कितने घावों का दर्द, कितनी बेचैनी
हो रही है रात गहरी और सब कुछ ऊब रहा है
कहां है कैद तुम्‍हारी नींद कि चुरा लाऊं तुम्‍हारे लिए आज!

पुलिन तुम कभी सोते क्‍यों नहीं?