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पूँछ / सुरेन्द्र स्निग्ध
Kavita Kosh से
आप हँसते हैं
तो पता नहीं कैसे खिल जाती है हमारी बत्तीसी
आप गुस्साते हैं
तो पता नहीं कैसे उग जाती है हमारी पूँछ
और अपने आप हिलने लगती है बेचारी !
हमारी पूँछ
फूलपैण्ट के अन्दर बहुत कष्ट देती है
आज्ञा कीजिए, हुज़ूर,
ताकि निकलकर यह बन जाए
आपके गले की हार
विश्वास दिलाता हूँ, हुज़ूर,
कभी नहीं कसेगी यह आपके गर्दन के गिर्द !