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पौरुष / ‘हरिऔध’

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क्यों न उसकी सदा रहे चाँदी।
पा कनक के नये-नये आकर।
जो मनुज-रत्न यत्न कर पाया।
क्यों उसे रत्न दे न रत्नाकर।1।

जो अमल हैं बिकच कमल जैसे।
बुध्दि जिनकी बनी रही बिमला।
काम में जो कमाल रखते हैं।
मिल सकी कब उन्हें नहीं कमला।2।

जब निकाला करें कमर कस कर।
मोतियों से न क्यों भरे डोंगे।
जो रखेंगे कुबेर सा काबू।
क्यों न तो धनकुबेर हम होंगे।3।

पाँव अपने जमा कमर को कस।
कर कमाई कमा कमा पैसे।
जो विभववान हम न बन पाये।
भव विभव दान तो करें कैसे।4।

क्यों सुनेगा असिध्दि की बातें।
है सदा ऋध्दि सिध्दि चाह जिसे।
कर रहा है असाध्य साधन वह।
साधना से मिली न सिध्दि किसे।5।

जब कमर काम के लिए कस ली।
क्यों नहीं तो कमाल करते वे।
पास जिनके विचार का पर है।
क्यों नहीं व्योम में बिचरते वे।6।

एक वैसा कर दिखाता है वही।
जब कभी जी में रहा जैसा ठना।
करतबी ही को न क्यों पारस कहें।
छू जिसे लोहा सदा सोना बना।7।

घेरती है जिन्हें न कायरता।
जो पड़े काम हैं न कतराते।
डर जिन्हें है नहीं विफलता का।
हैं सफलता सदा वही पाते।8।

जो हमें मिल सका नहीं चावल।
किस तरह तोष दे सके तो तुष।
उस पुरुष को पुरुष कहें कैसे।
पास जिसके न पा सके पौरुष।9।

वैसी ही सिध्दि मिल सकी उनको।
लोग थे सिध्द बन सके जैसे।
जो नहीं हैं विभूतियों वाले।
पा सकेंगे विभूतियाँ कैसे।10।

तब भला रीझती रमा कैसे।
साधनों में न जब रमा है मन।
जब न करतूत धान धानी होंगे।
तो धानद भी न दे सकेगा धान।11।