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प्यारी छबि की रासि बनी / भारतेंदु हरिश्चंद्र
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प्यारी छबि की रासि बनी।
जाहि बिलोकि निमेष न लाग्त श्री वृषभानु-जनी॥
नंद-नंदन सों बाहु मिथुन करि ठाढ़ी जमुना-तीर।
करक होत सौतिन के छबि लखि सिंह-कमर पर चीर॥
कीरति की कन्या जग-धन्या अन्या तुला न बाकी।
वृश्चिक सी कसकति मोहन हिय भौंह छबीली जाकी॥
धन धन रूप देखि जेहि प्रति छिन मकरध्वज-तिय लाजै।
जुग कुच-कुंभ बढ़ावत सोभा मीन नयन लखि भाजै॥
बैस संधि संक्रौन समय तन जाके बसत सदाई।
’हरिचंद’ मोहन बढ़भागी जिन अंकम करि पाई॥