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प्रतिक्षा / चित्रा पंवार
Kavita Kosh से
नीलगिरि की पहाड़ी
बारह बरस बाद
नीलकुरूंजी के खिलने पर ही
करती है
अपनी देह का श्रृंगार
वह नहीं जाती चंपा, चमेली, गुलाब के पास
अपने यौवन का सौंदर्य मांगने
अयोध्या व उर्मिला के सत को विचलित नहीं करता
चौदह साल का चिर वियोग
जानती हैं वो
एक दिन लौटेंगे राम
अनुज लखन के साथ
पार्वती कई जन्मों तक
करती है तप
बनाती हैं खुद को राजकुमारी से अपर्णा
अर्धनारीश्वर शिव की प्राण प्रिया
फैसाख, जेठ की अग्नि में भी
जलकर नष्ट नहीं होती धरा की हरितिमा
क्योंकि सुनाई दे रही है उसे
पास आते सावन की पदचाप
जहाँ प्रतीक्षा है
धैर्य है
लौट आने का भरोसा है
विरह की सुखद पीड़ा है
वहीं है प्रेम