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प्रपात / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
यह जो आ रहा है
टूटकर गिरता हुआ
फेनिल प्रपात
अंधकार की चट्टानों तले
ज़रूर कहीं पिस रहा होगा प्रकाश
उधर ही गया था सूर्य
चंद्रमा भी उधर ही
उधर ही गए थे तारे
आकाश गंगा में बहते हुए बुलबुले
उधर ही गए थे प्रेत, पितर, गंधर्व
उधर ही गई थीं प्रतिध्वनियाँ
उधर ही गये थे आर्तनाद
दैत्याकार चट्टानों के पाट में
सोचो तो कैसे पिस रहा होगा समय
झरने के पानी में
रक्त की लालिमा गहराने लगी है
हो सकता है प्रपात के हाहाकार से ही निकल कर
आने वाला हो नया प्रभात !