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प्रभु का रुद्र रूप / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

जिस अविनाशी से डरते हैं,
भूत, देव, जड़, चेतन सारे।
जिसके डर से अम्बर बोले, उग्र मन्द गति मारुत डोले,
पावक जले, प्रवाहित पानी, युगल वेग वसुधा ने धारे।
जिसका दण्ड दसों दिस धावे, काल डरे, ऋतु-चक्र चलावे,
बरसें मेघ, दामिनी दमके, भानु तपे, चमकें शशि-तारे।
मन को जिसका कोप डरावे,घेर प्रकृति को नाच नचावे,
जीव कर्म-फल भोग रहे हैं, जीवन, जन्म-मरण के मारे।
जो भय मान धर्म धरते हैं, ‘शंकर’ कर्म-योग करते हैं,
वे विवेक-वारिधि बड़ भागी, बनते हैं उस प्रभु के प्यारे।