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प्रवास एवं छल / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

गौतम था धन हीन किन्तु वह चतुर चितेरा नर था।
द्वेष-कपट-छल-छद्म आदि का वह आचार्य प्रवर था।
रचा कठिन षड्यंत्र धर्म दुख का कारण बतलाकर।
रत्न और धन सहित ले गया मण्किुण्डल को सत्वर।

दूर देश में जाकर दोनों बने बड़े व्यापारी।
बढ़ने लगा रत्न-धन दिन-दिन प्रगति हो चली भारी।
धर्म-धीर मण्किुण्डल सत्कर्मों का खिला कमल था।
किन्तु कुटिल गौतम के मन में दारुण द्वेष-गरल था।

लगा सोचने मणिकुण्डल तो भोले शिशु-सा नर है।
सकल रत्न-धन हर लेने का यह अवसर सुन्दर है।
डूबा हुआ लोभ में वह आकण्ठ व्यस्त उद्यम में।
तृष्णाओ का ज्वार जग उठा अकर्मण्य गौतम में।

तृष्णाओं का ताप जला देता विवेक पावन को।
तृष्णाओं का जाल कैद कर लेता है तन-मन को।
तृष्णाएँ परलोक-लोक सब दूषित कर देती हैं।
तृष्णाएँ संयम की पूँजी क्षण में हर लेती है।

तृष्णाओं का खेल पतन-पाताल भेज देता है।
लोभ-मोह का दुखद तिमिर मन में सहेज देता है।
तृष्णाएँ करतीं अनर्थ हर व्यर्थ करती हैं।
सदाचरण के चरण खींच अंगारों पर धरती हैं।

हो जाते संकल्प शिथिल दृढ़ निश्चय ढह जाते हैं।
तृष्णाओं की प्रखर धार में सद्गुण बह जाते हैं।
फिर गौतम ने मणिकुण्डल से वही बात दुहरायी।
मानो मेरा कहा बन्धु! है धर्म बड़ा दुखदायी।

सखे! धर्म का वरण अभावों का सूना-सा पथ है।
भरे व्याथाओं को पग-पग पर भीषण बना अकथ है।
जहाँ सुखों की नित्य होलियों धधक-धधक जलती हैं।
मधुर कामनाएँ तो हरपल विवश हाथ मलती है।

नहीं नहीं गौतम! यह तेरी सोच नकारात्मक है।
कैसा यह ज्ञान, पंथ जो दिखा रहा भ्रामक है।
सोचो सम्हलो जगो, धर्म के पथ का वन्दन कर लो।
बन जाओ कुल के किरीट यह जीवनचन्दन कर लो।

नहीं जागते, अगर अभी तुम पीछे पछताओगे।
भ्रमित विचारों के कारण रो-रोकर रह जाओगे।
वेद शास्त्र का ज्ञान तुम्हें क्षण-क्षण में धिक्कारेगा।
जब अनुभव के बाद उरस्तल सत्य धर्म धारेगा।

विकल प्राण होगे तेरे कुछ हाथ नहीं आयेगा।
सत्य-धर्म का शुभ-दर्शन जिस क्षण तू कर पायेगा।
इसीलिए कहता हूँ गौतम! सत्य-धर्म ही सुख है।
इसके सिवा धरित्री पर हर ओर तरंगति दुख है।

किन्तु दूर के ढोल सुहाने लगते हैं जन-मन को।
नहीं तृप्ति दे पाते फिर भी भटकाते जीवन को।
समझ नहीं पाता हूँ आखिर यह कैसा चिन्तन है?
सुमति प्रदूषित कर देता कर देता दूषित मन है।

शान्ति, शील, सद्भाव, सत्य सम्पूरित शुभ उपवन पर।
बोलो अब क्या सम्मति है इस धर्म परम पावन पर?
मणिकुण्डल! तर्कों से कुछ भी निर्णय हो न सकेगा।
वाद-विवाद बढेगा उत्तर-प्रतिउत्तर घहरेगा।

अच्छा होगा न्याय किसी नैयायिक से करवा लें।
मन-मंदिर में उगी हुई सब शंकाओं को घालें।

मित्र! पंच परमेश्वर के ही रूप हुआ करते हैं।
नीति न्याय के देव सदा दुर्मति अनीति हरते हैं।
कल ही मैं धर्माभियोग का आयोजन करता हूँ।
और सत्य, सद्भाव, धर्म का नया पृष्ठ रचता हूँ।

किन्तु नियमतः जीत हार की शर्त रखी जायेगी।
जिससे निष्ठा सत्य-धर्म की अभिनव बल पायेगी।
सखे! कथन यदि सत्य हमारा विजयश्री पायेगा।
तो धन रत्न समस्त तुम्हारा मेरा हो जायेगा।

और अगर यदि हारा तो अपना सब कुछ दे दूगाँ।
फिर जीवन पर्यन्त तुम्हारा कथन वरण कर लूँगा।
धर्मव्रती मण्किुण्डल के मन में न रंच भी भय था।
सत्य-धर्म के प्रति उसमें विश्वास भरा अक्षय था।