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प्रिज़्म / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
पानी के इक क़तरे में
जब सूरज उतरे
रंगों की तस्वीर बने
धनक की सातों कौसें
अपनी बाँहें यूँ फैलाएँ
क़तरे के नन्हे से बदन में
रंगों की दुनिया खिंच आये
मेरा भी इक सूरज है
जो मेरा तन छूकर मुझमें
कौस-ए-कुज़ह के फूल उगाए
ज़रा भी उसने ज़ाविया बदला
और मैं हो गई
पानी का इक सादा क़तरा
बेमंज़र बेरंग