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प्रिये, तुम्हारी मृदु ग्रीवा पर / सुमित्रानंदन पंत

प्रिये, तुम्हारी मृदु ग्रीवा पर
झूल रही जो मुक्ता माल,
वे सागर के पलने में थे
कभी सीप के हँसमुख बाल!
झलक रहे प्रिय अंगों पर जो
मणि माणिक रत्नालंकार,
वे पर्वत के उर प्रदेश के
कभी सुलगते थे उद्गार!
गूढ़ रहस्यों को जीवन के
नित्य खोजते हैं जो लोग
वही स्वर्ग की रत्न राशि का
उमर अतुल करते उपभोग!