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प्रेमिक / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार

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तुमने एकदिन मुझे
बादल गरजने की जो किताब दी थी
आज उसे खोलकर देखा
देखता हूँ – उसके भीतर कमर - कमर तक पानी है

अगले पन्ने पर जाकर वह जल
एक नदी का हिस्सा बनकर
सुदूर तिरछा चला गया ।

तुमने मुझे वनस्पतियों से भरी
जो किताब दी थी
आज वहाँ एक भी क़दम आगे बढ़ना
सम्भव नहीं है,
इतना घना जंगल ।
सब पेड़ इतने बड़े हो गए हैं कि
ज़मीन तक रौशनी आने नहीं दे रहे ।

तुमने मुझे
झरने के बारे में जो किताब दी थी
आज वहाँ पर
एक विशाल जलप्रपात
दिनभर छलाँगें लगाता रहा ।

यहाँ तक कि
तुम्हारा दिया हुआ पेजमार्क का सफ़ेद पंख
जिस किताब में रखा था, वहाँ आज
कितने ही पंछी उड़ रहे हैं, बैठ रहे हैं, तैर रहे हैं ।

तुम्हारी दी हुई सब किताबें
अब हैं मरुथलऔर पर्वत मालाएँ
सब किताबें
आज हैं सूर्य,
सब किताबें दिगन्त ...

और देखो आज ही मित्र लोग आ रहें हैं
मेरी लाइब्रेरी देखने
मेरी पढ़ाई लिखाई ठीक चल रही है कि नही
जानने के लिए !
उन्हें मैं क्या दिखाऊँगा ?
किस मुँह से जाऊँगा मैं उनके सामने !

जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित