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प्रेम-2 / अरुण देव
Kavita Kosh से
कच्चे मांस की ख़ुशबू के पीछे
चीते की तरह दबे पाँव आया मैं
धीरे-धीरे तपा मैं इस आग में
पकता रहा नमक के घुल जाने तक
एक-एक नस को धीरे-धीरे सुलगाती रही यह आँच
एक-एक कोशिश जैसे ठहर गई हो
ठिठके खरगोश की तरह
भरता रहा रस
ताड़ वृक्ष में लटकी लबनी में बूँद-बूँद
जीवन शुरू करने से पहले का समय था यह