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प्रेम में मैं असहज हूँ / प्रज्ञा पाण्डेय
Kavita Kosh से
प्रेम में मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवजह !
कभी चाहती हूँ रौंदकर
ख़ुद को
उसी की राह बन जाऊँ
कभी चाहती हूँ
रौंद देना सब कुछ !
कभी तन्हाई का
जंगल थाम
बैठ जाती हूँ
कभी चलती हूँ हर क़दम ही
शोर बन कर !
यूँ तो
कायनात में
वो
इक अकेला है
और सिर्फ मेरा सिर्फ
मेरा
सिर्फ मेरा है
है चश्मे का पानी कभी
वो
मीठा मीठा सा!
तल्ख़ होता है
मगर
जब
घूँट भर नहीं मिलता!
भाती है उसकी
बच्चों सी
हँसी
कब चाहती हूँ मैं की वो रोये
मगर
सिसकियाँ उसकी
भली !
पराग मेरे अंग पर
यूँ तो मला है
प्रेम ने
और मैं भी उड़ी
ख़ूब
तितलियों के संग
फिर भी
निर्मम !
पंख उनके
मसलती हूँ देह पर
प्रेम में
मैं असहज हूँ
अव्यवस्थित
बेवज़ह !!