सन्नाटों की पोटली में
ढेर सारा अकेलापन लिये,
मैं सुकून के कश खींच
उदासी का धुआँ उड़ाता जा रहा था।

दौलत की हवेली में घुटती थी सांसें
बोझ दिमाग पर घर, कारोबार का
पैसा कमाने, संभालने की उलझन में
उलझा तन मन था थका-थका सा

एयरकंडीशनर की ठंडक में राहत कहाँ,
गरमाहट नहीं कमरे के हीटर में
घर बन चुका था आलीशान होटल,
परिवार बिखर चुका था क्लब-डिस्को में

सब सुख बटोरकर
अपनों में रहकर भी,
मैं कितना अकेला था
मेरे भीतर, बाहर बस
अंधेरा ही अँधेरा था

मैं, बेमकसद, बेमंजिल
चलता चला जा रहा था
सकून के कश खींच
उदासी का धुआँ उड़ाता जा रहा था।

दूर झोपड़ी के अधखुले दरवाज़े से
झांक रही थी लालटेन की पीली लौ
उस महीन रोशनी की लकीर पकड़
मैं उस झोपड़ी के करीब पहुँचा
झोपड़ी का घर, मेरे मकान से काफ़ी बड़ा था
उनके तंग बैठ, संग खाने की मजबूरी
मेरे मकान के खुलेपन की दूरी से
कई गुना बेहतर थी।

बरसों बाद नर्म रिश्तों की गर्मी देख
मैं अपनी ठंडी रुह सेकने लगा
अंदर झोपड़ी से आवाज आती है
देखो बाहर कोई फकीर लगता है

आहट सुन अंधेरे में खोता जा रहा था,
अमीरी की पोशाक में,
भीतर की फकीरी छुपाता जा रहा था
सुकून के कश खींच
उदासी का धुआँ उड़ाता जा रहा था।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.