फ़रिश्ते / अशोक शाह
उन्हें नहीं भेजता ईश्वर
स्वर्ग से वे उतरते नहीं
हमारे ही बीच में होते हैं वे -
परिवार और पड़ोस से
वे शामिल हैं हमारे संबंधियों में
अपने भाई, बहन, पत्नी, माँ को कब
देखा है हमने फ़रिश्ता होते हुए
रंग उनका साँवला भी होता
वे सीधे मासूम होते
जब तक वे मनुष्य-रूप होते हैं
हमीं उन्हें पहचान नहीं पाते
होतीं अपनी मजबूरियाँ उनकी भी
पर स्वभावतः कुछ नहीं अपने लिए करते
बहुत कठिन है उनका किसी के विरूद्ध होना
जो हम जानते हैं वही सच्चाई नहीं होती
वे हमारे अपने लघु स्वार्थ से बड़े होते हैं
अपने हित में मशगूल हम जान नहीं पाते
उनके जाने के बाद भी
हमारे स्वार्थ की पेंदी में दरार करते
वे छोड़ जाते हैं खूब सारा स्पेस
कभी अहसास कर सके उनका
जो हमारे काफी करीब होते हैं
हमारी भूख के लिए अपनी रोटी छोड़ते
हमारे आँसुओं को पोंछते
जब हम सो रहे होते
अगली सुबह आशंकाओं की दुनिया में उठने के लिए
ईश्वर को याद करने से अधिक जरूरी है उन्हें महसूसना
चौखट लाँघकर भीतर जाने की जल्दीबाजी में
हम भूल जाते हैं अपनी जिम्मेदारी
फ़रिश्ते गर्भगृह में नहीं
अक्सर द्वार पर ही खड़े मिलते
हमारे दिल के बहुत करीब
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