फागुनी गन्ध ने इस तरह छू लिया
इंद्र धनुषी दिशायें थिरकने लगीं।
पोर छू कर के
मेंहदी रचे हाथ के
जाने क्या कह गई
एक उजली किरन
नेह का सूर्य
माथे पर अंकित हुआ
बाँध उसने लिया
मन का चंचल हिरन
वारुणी-सी घुली आज वातास में
भावना नर्तकी-सी बहकने लगी।
किसके रोके रुकी है
नदी चंचला
किसके बाँधे बंधी
चन्द्रमा कि कला
मौन अनुभूति
मुखरित हुई इस तरह
सिंधु में ज्वार का
अनवरत सिलसिला
नेह की निर्झरी में नहा कर सलज
पीर भी कौमुदी-सी महकने लगी।