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फिर कैसे दूरी हो पाए / संतोष कुमार सिंह

एक छोर पर तुम ऐंठे हो, एक छोर पर हम।
फिर कैसे दूरी हो पाए, हम दोनों की कम।।

तुम्हें चाहिए दान भूमि का, हमसे मनमाना।
हमें असीमित प्यार उसी से, तुमने कब जाना।।
हम बाँटें मुस्कानें लेकिन, तुम बाँटो बस गम।

राग, द्वेष, नफ़रत के तुमने, भरे हज़ारों रंग।
हम नफ़रत की गाँठें खोलें, प्रेम-प्रीति के संग।।
कैसे हम मकरंद सृजेंगे, कुसुम कुचलते तुम।

तुम दूजों की गोद बैठ कर, शूल बिछाते हो।
फिर भी हमको सत्य-अहिंसा के पथ पाते हो।।
खूब प्यार की दवा पिलाई, पर न हुआ विष कम।

मलय, समीर, गुलाल बिखेरें, बिखरे प्रीति-सुगंध।
महाशक्ति बन जायेंगे हम, दोनों हों यदि संग।।
छल-प्रपंच में पगे हुए तुम, हम छेड़ें सरगम।